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क्या है स्वयंस्पफूर्त प्रजनन ?

हम सब को पता है कि मनुष्य बच्चे पैदा करते हैं, कुत्तों के पिल्ले होते हैं और बिल्लियाँ, छोटी बिल्लियों को जन्म देती हैं। चिडि़याघर की सैर करते हुए हम देखते हैं कि भालुओं के शिशु होते हैं और हिरनों के हिरनौटे होते हैं। जानवर के हरेक शिशु को एक जीवित जानवर मंा जन्म देती है। यह मां खुद किसी अन्य मंा से जन्मी होगी। और इसी तरह यह सिलसिला जारी रहा होगा।

आपकी खुद की मं कभी आपकी नानी की बेटी रही होंगी। और आपकी नानी कभी आपकी परनानी की बेटी रही होंगी आदि।
कुछ जीव जैसे पक्षी अंडे सेते हैं। हरेक जीवित पक्षी ने किसी अंडे से जन्म लिया होगा जिसे उसकी मंा ने सेया होगा। उसकी मंा भी एक अंडे से जन्मी होगी जिसे उसकी मां ने सेया होगा।

और यही बात पौधें पर भी लागू होती है। अगर आप कोई पौध उगाना चाहते हैं तो आपको उसके बीज बोना होगा। यह बीज उससे पहले के पौधें पर उगे होंगे। पहले वाले पौधे उससे पहले उगे पौधें के बीजों से पनपे होंगे, आदि।
यह सब शुरू कंहा से हुआ? क्या यह प्रक्रिया हमेशा से चल आ रही है? या पिफर कभी पृथ्वी पर एक मूल मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली, भालू, मुर्गी या पफूल थे?

अगर ऐसा था तो यह सब मूल जीव कंहा से आए?

मौजूदा काल से पहले लोगों को यह कोई बड़ा अजूबा नहीं लगता था। कम-से-कम कुछ जिन्दा जीवों के बारे में उन्हें यह बिल्कुल भी अजूबा नही लगता था। जीवन के कुछ रूप खुद अपने आप पैदा होते थे – मालूम नहीं कंहा से। यह बात विशेषतौर पर उन जीवों पर लागू होती थी जो या तो हमारे किसी काम के नहीं थे या पिफर वो हमें परेशान करते थे। उदाहरण के लिए बहुत कम लोगों की रफचि मगरमच्छों और सापों में होती है। बहुत कम लोग ही उन्हें चाहते हैं। अध्किांश लोग उन्हें मारकर खत्म करते हैं। पिफर भी वे पैदा होते ही रहते हैं।

विलियम शेक्सपियर के नाटक एंटनी और क्लीयोपेट्रा में एक पात्रा है लेपीडस जो एक रोमन जनरल है। शेक्सपियर उससे यह कहलवाते हैंः ‘मिस्त्रा का तुम्हारा साँप तुम्हारी मिट्टी में सूर्य के प्रकाश से पैदा होगा, और यही बात मगरमच्छ पर भी लागू होगी।’ शायद कुछ लोग मानते हों कि मगरमच्छ और साँप, धूप में तपती मिट्टी से पैदा होते हैं। पर असल में यह सच नहीं है। मगरमच्छ और साँप  अंडे सेते हैं जिनसे मगरमच्छ और संाप के बच्चे निकलते हैं। परन्तु छोटे और बहुतायत में पाए जाने वाले जीवों के बारे में क्या? रेफ्रिजरेशन  से पहले मीट, मास जल्दी खराब होकर सड़ने लगता था। फिर उसमें भुनगे जैसे कीड़े रेंगने लगते थे।

ऐसा लगता था जैसे सड़ते मास में से जिन्दा भुनगे पैदा हुए हों। जैसे किसी मृत चीज से जीवन खुद-ब-खुद पैदा हुआ हो। अगर इस प्रकार भुनगे पैदा हो सकते तो सही परिस्थितियों में जीवन के अन्य रूप भी इसी प्रकार जन्म ले सकते होंगे। हो सकता है कि हजारों साल पहले साँप, मगरमच्छ, मुर्गी, कुत्ते और इंसान भी इसी प्रकार मृत चीजों से पैदा हुए हों। जीवन को मृत पदार्थ से पैदा होने को स्वयंस्पफूर्त जनन कहते हैं। इसका मतलब होता है बिना बाहर की मदद से जीवन की उत्पत्ति।पुराने जमाने में विद्वान लोग स्वयंस्पफूर्त जनन की अवधरणा को सही मानते थे।

1668 में एक इतालवी डाक्टर फ्रांसिस्को रेयडी ;1626-1697द्ध ने इस अवधरणा का परीक्षण करने की ठानी। हो सकता है कि कुछ छोटे जिन्दा जीव सड़े मीट पर अंडे सेते हों? अंडे इतने छोटे हों कि वो लोगों को दिखाई ही न देते हों। और शायद इन अदृश्य अंडों से भुनगे निकलते हों।
अपने प्रयोग के लिए रेयडी ने ताजे मीट को आठ भिन्न-भिन्न कंाच के फ्रलास्कों में रखा। उसने चार बर्तनों को सील किया जिससे कि उनमें कोई चीज अंदर न जा पाए। चार बर्तनों को खुला छोड़ा जिससे कि मक्खियां बर्तन में घुसकर मीट पर बैठ सकें।
कुछ दिन बीतने के बाद खुले बर्तनों में मीट सड़ने लगा, उनमें बदबू आने लगी और उनपर भुनगे भुनभुनाने लगे। जब रेयडी ने सीलबंद बर्तनों को खोला तो उनके अंदर का मीट भी सड़ा और बदबूदार था पर उनमें भुनगे नहीं थे।

क्या स्वच्छ हवा के अभाव में भुनगे नहीं जन्मे थे? रेयडी ने एक और प्रयोग करने की ठानी। उसने पिफर कुछ बर्तनों में ताजा मीट रखा। उसने बर्तनों के मुंह पर कपड़े की जाली बंाध्ी। इस जाली मंे से सापफ हवा तो अंदर जा सकती थी परन्तु मक्खियंा नहीं। नतीजा? मीट सड़ गया परन्तु उसमें भुनगे पैदा नहीं हुए।

इसका निष्कर्ष एकदम सापफ था। मक्खियों ने अंडे सेए और उन अंडों में से भुनगे निकले जो बाद में खुद मक्खियां बने। बिल्कुल उसी तरह जैसे इल्लियों से तितलिया बनती हैं। स्वयंस्पफूर्त जनन की अवधरणा का यह खंडन था। जब रेयडी ने यह खोज की उस समय वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में से छोटी चीजों को बड़ा करके देख रहे थे।

एक डच वैज्ञानिक अंतोन वान लेविनहुक (1632-1723) ने 1675 में माइक्रोस्कोप से कई नए सूक्ष्मजीव खोजे जिन्हें सिपर्फ आँख से नहीं देखा जा सकता था। आज इन छोटे जीवों को हम सूक्ष्मजीवी कहते हैं। लेविनहुक ने सूक्ष्मजीवियों को तैरते और उन्हें अन्य सूक्ष्मजीवियों को खाते हुए देखा। यह छोटे सूक्ष्मजीवी कंहा से आए? अध्किांश का नाप एक-इंच के सौवें भाग से भी कम था। क्या वे अंडे दे सकते थे?

इन सूक्ष्मजीवियों को देखने के लिए किसी गड्ढे या तालाब का थोड़ा पानी ले। अगर इस पानी में खाने वाला शोरबा ;सूपद्ध मिलाया जाए तो सूक्ष्मजीवी उसे खाएंगे। इससे उनकी संख्या तेजी से बढ़ेगी।

इस सूप में कुछ अन्य चीज मिलाने की जरूरत नहीं है। इस ताजे बने और छने सूप को अगर आप माइक्रोस्कोप के नीचे देखेंगे तो उसमें कोई सूक्ष्मजीवी नजर नहीं आएंगे। पर उसे कुछ देर श्ंाात छोड़ने के बाद वो सूक्ष्मजीवियों से भरा जाएगा।

यह स्वयंस्पफूर्त जनन की अवधरणा का एक अच्छा उदाहरण है। मृत सूप में से जीवित सूक्ष्मजीवियों का उत्पन्न होना। पर क्या यह वाकई में सच है?

यह सम्भव है कि आसपास की हवा में सूक्ष्मजीवी तैर रहे हों। अगर वो इत्तिपफाक से इस सूप में गिर गए तो पिफर उनकी संख्या बढ़नी शुरू हो जाएगी।

इस अवधरणा के परीक्षण के लिए 1748 में ब्रिटिश वैज्ञानिक जाॅन टी नीडुम ;1713-1781द्ध ने मंास के ताजे सूप पर प्रयोग किए। उसने सूप को एक बर्तन मंे उबाला जिससे कि उसमें मौजूद सभी सूक्ष्मजीवी नष्ट हो जाएं। पिफर जब गर्म था उसी स्थिति में उसने बर्तन को सीलबंद कर दिया।

कुछ दिन बाद जब  मक्खी का जीवनचक्र अंडे भुनगे वयस्क 8 उसने बर्तन खोला और सूप का माइक्रोस्कोप के नीचे मुआयना किया तो वो सूक्ष्मजीवियों से भरा था। उसने स्वयंस्पफूर्त जनन की अवधरणा के सही होने का ऐलान किया – क्योंकि बर्तन के सीलबंद होने के बाद उसमें बाहर से कुछ गिरा नहीं था।

एक व्यक्ति जो इस बात से असहमत था वो था लजैरो स्पफैललैनटाशनी ;1729-1799द्ध। क्या नीडुम ने शुरफआत में सब सूक्ष्मजीवियों को ठीक तरीके से नष्ट किया था? उसने उस शोरबे को कम देर के लिए उबाला था।

स्पफैललैनटाशनी ने उस प्रयोग को दुबारा दोहराया। 1768 में उसने सूप को आधे घंटे तक उबाला। उसके बाद उसने बर्तन को सीलबंद किया। उसके बाद चाहें कितने दिनों के बाद उसने बर्तन को खोला उसे उसमें एक भी सूक्ष्मजीवी नहीं मिला। स्पफैललैनटाशनी के अनुसार हवा में छोटे सूक्ष्मजीवी तैरते हैं और सूप में मिले सूक्ष्मजीवियों का वही स्रोत्रा हैं।

स्पफैललैनटाशनी ने हरेक सूक्ष्मजीवी की माइक्रोस्कोप के नीचे जांच -परख की और पाया कि हरेक सूक्ष्मजीवी दो जीवित सूक्ष्मजीवियों में बंटता है। वहंा कोई अंडे नहीं थे। सूक्ष्मजीवी बस दो भाग में बंट जाते थे। इस प्रकार उनकी संख्या में बढ़ौत्तरी होती थी।

पर क्या हवा में हर समय सूक्ष्मजीवी तैरते रहते हैं? एक जर्मन वैज्ञानिक थियोडोर श्वान ;1810-1882द्ध ने इस अवधरणा का परीक्षण किया। उसने भी स्पफैललैनटाशनी जैसे ही शोरबे को उबाला पर उसने बर्तन को सीलबंद नहीं किया। उसने शोरबे का हवा के साथ सम्पर्क स्थापित किया। उसने इस हवा को खूब गर्म किया जिससे कि उसमें मौजूद सभी सूक्ष्मजीवी नष्ट हो जाएं। उस शोरबे में कोई भी सूक्ष्मजीवी नजर नहीं आया।

कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार शायद हवा में कोई ऐसा महत्वपूर्ण तत्व हो जिससे स्वयंस्पफूर्त जनन होता हो। हवा को उच्च तापमान तक गर्म करने से शायद वो तत्व नष्ट हो जाता हो। उसके कारण सूप में अब सूक्ष्मजीवी पैदा नहीं हो रहे हों।

इसके परीक्षण के लिए फ्रेंच रासायनशास्त्राी लुई पास्चर ;1822-1895द्ध ने एक नया प्रयोग किया।

उसने सूप को बहुत देर तक उबाला जब तक उसके सभी सूक्ष्मजीवी नष्ट हो गए। पिफर उसने सूप को एक लम्बी और सकरी गर्दन वाले फ्रलास्क में रखा। फ्रलास्क की गर्दन पहले उफपर जाकर पिफर एक ओर झुकती और पिफर थोड़ा उफपर उठती – जैसे कि अंग्रजी का अक्षर ‘एस’ अपनी पीठ पर लेटा हो।

सूप ठंडा होने के बाद ठंडी हवा फ्रलास्क की लम्बी नली से होकर सूप तक पहुंच सकती थी। अगर हवा में कोई महत्वपूर्ण तत्व होते तो वे अपना कारनामा दिखलाते।

पर नली में से केवल हवा अंदर आ सकती थी। उसमें मौजूद धूल के कण सब नली की गर्दन के निचले भाग में अटक जाते थे। पाश्चर को लगा कि अगर हवा में सूक्ष्मजीवी होंगे तो धूल के कणों के साथ चिपक कर वे भी नली की गर्द में अटक जाएंगे। ऐसा ही हुआ और सूप में कोई सूक्ष्मजीवी पैदा नहीं हुए। जब पाश्चर ने फ्रलास्क की गर्दन तोड़ी तब हवा के साथ धूल भी सूप तक गई और उसमें तुरन्त सूक्ष्मजीवी पैदा होना शुरू हुए।

पाश्चर के प्रयोगों के बाद स्वयंस्पफूर्त जनन की अवधरणा का हमेशा के लिए खंडन हुआ। एक जर्मन वैज्ञानिक रफडौल्पफ पिफरखुव ;1821-1902 ने पाश्चर के प्रयोग के बारे में सुनने के बाद लिखा, ‘जीवन सदा जीवन से ही पैदा होता है।’ उसके बाद से वैज्ञानिक इस नियम को मानने लगे।

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