जीवन

अकेले हम अकेले तुम,जीवन होगा बर्बाद

वसुधैव कुटुंबकम् के जीवन दर्शन में जीने वाला भारत, बढ़ते बाजारवाद व उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण उसकी संयुक्त परिवार की प्राचीन परंपरा टूट गयी है। इसकी बड़ी कीमत सुजाता और राज को चुकानी पड़ रही है। अरेंज मैरेज करने के बाद दोनांे दिल्ली रहने लगे। राज आई.टी. इंजीनियर, तो सुजाता बैंक में थी। अच्छा वेतन, अपना घर, गाडी अइस और सारी सुख सुविधा दोनों ने जुटा ली थी। इस सबमें 3-4 वर्ष मौज-मस्ती से बीत गये। समस्या तब आयी, जब उन्होंने बच्चा प्लान किया। बेटी सुरूचि के होते ही दानों की दिनचर्या ही गड़बड़ा गयी।

दरसल नौकरी, सुख सुविधा जुटाने और मौज-मस्ती में दोनों ने अपने को परिवार से अलग-थलग कर लिया। शुरू में दोनों के माता-पिता, भाई- बहन व अन्य रिश्तेदार आते थे। लेकिन सुजाता व राज को यह पसंद नही था। धीरे-धीरे लोगों ने आना-जाना छोड़ दिया। यहां तक कि दिल्ली में रह रहे रिश्तेदार भी दूर हो गये। बडी मुश्किल तब हुयी, जब बेटी स्कूल जाने लगी। सब कुछ हाउसमेट पर निर्भर था।
सुरूचि की पड़ोस में रहने वाली उसकी सहेली रचना जब अपने दादा- दादी से सुनी कहानियां सुनाती या अक्सर आने वाले मामा-चाचा के साथ की जाने वाली मस्ती की बातें बताती, तो वह उदास हो जाती। इसका जिक्र वह अपने मम्मी-पापा से भी करती। यह सब सुन कर सुजाता व राज को भी लगने लगा कि वह लोग और उनकी बेटी कुछ खो रहे हैं। एक दिन बेटी स्कूल से लौटी तो बुखार से तप रही थी। मेट उस समय सोयी थी। सुजाता के बैंक में आडिट होने से वह देर रात में लौटती थी। राज कंपनी के काम से दौरे पर था। सुरूचि मेट को सोया देख ड्रेस पहने ही लेट गयी। बुखार तेज होने से उस पर बेहोशी छा गयी थी।

शाम को मेट ने जागने पर सुरूचि को बेहोश पाया, तो सुजाता को फोन किया। बड़ी मुश्किल से वह आफिस से निकल कर घर पहंुची। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। वह बेटी को लेकर डाक्टर को दिखाने निकली, तो रचना की मम्मी आशा ने देखा तो पूछ बैठी। वह खुद भी साथ चल पड़ी। बेटी को निमोनिया हो गया था, उसे हल्का बुखार पहले से था, जिसे व्यस्तता के कारण सुजाता भी नहीं जान पायी थी और मेट ने बचची को रात का बचा ठंडा केक नाश्ते में दे दिया था। डाक्टर ने सुरूचि को एडमिट करने को कहा। राज भी टूर बीच में छोड़ कर लौट आया। रात भर आशा सुजाता के साथ अस्पताल में रही। उसके पति ने भी दवा आदि लाने में मदद की। सुजाता ने कहा भी कि उसके बच्चे अकेले होंगे, लेकिन आशा ने बताया कि उसकी सास और देवर साथ रहते हैं। इसलिये कोई दिक्कत नहीं है।

तभी सुजाता को पता चला कि आशा एक कंपनी में सी.ए.है। आशा ने पूछा कि उसके घर से कोई नहीं आया, तो सुजाता का मुंह उतर गया। आशा सब समझ गयी। उसने संयुक्त परिवार के महत्व पर काफी कुछ कहा। उसने बताया कि उसके 2 बच्चे हैं, लेकिन उसे कभी पता ही नहीं चला कि वह कैसे पल गये, क्योंकि कभी उसकी सास कभी मंा, ननंद, देवर, देवरानी ससुर आते-जाते रहते हैं। कभी घर खाली नहीं रहता। उसने बताया कि इससे उसके लेक्चरर पति व उसको कभी-कभी निजता की कमी अखरती है, लेकिन वह बड़ी बात नहीं है। थोड़ा ऐश-आराम में भी कमी होती है, लेकिन साथ में रहने से दुख-सुख मजे में कट जाता है। सुजाता को पहली बार वास्तविक सुख का एहसास हुआ। तब तक सुबह हो गयी और नया सवेरा हो चुका था।

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