देश में बहस चल पड़ी है कि कारपोरेट कंपनियों के हाथों में खेल रही भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार क्यों किसी भी कीमत पर, किसानों की भूमि हथिया कर, औधोगिक घरानों व निजी कंपनियों को सौंपने पर आमादा है? इस मसले को सिर्फ भूमि अधिग्रहण के रूप में देखना, सिक्के का एक पहलू भर देखना है। संपूर्णता में यह मामला देश की कृषि व्यवस्था व खाधान्न बाजार पर निजी क्षेत्र का कब्जा और उनके लिये खेतों से लेकर उधोगों तक सस्ते श्रम की भरपूर उपलब्धता से जुड़ा है। इसके विपरीत लोक कवि माघ भट्टराई की लोकोक्तियाँ में जीने वाले समाज में उत्तम खेती, मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी, भीख निदान का दर्शन व्याप्त रहा है। इस पर और चर्चा से पहले एक कहानी। हालांकि पंचतंत्र अथवा देश के अन्य भागों में भी इस तरह की कथाओं व लोकोकितयों की भरमार है, लेकिन यहां वह खूब प्रासंगिक बन रही है।
एक बार एक घने जंगल में दो दोस्त हरिया व सुखिया रहते थे। वह घोड़े, गधे, कुत्ते खच्चर, ऊंट या कोर्इ भी पालतू पशु हो सकता है। पाठक अपनी सुविधा के अनुसार समझ लें। हरिया थोड़ा बुद्धू व सीधा था, जबकि सुखिया समझदार व तेज था। दोनों गहरे दोस्त थे और अपने झुंड में मौज से रहते थे। खाने-पीने की खूब सुविधा थी। कभी-कभी सूखा पड़ने पर खाने-पीने का अकाल जरूर पड़ जाता था। ऐसे में सभी जानवरों के सामने संकट खड़ा हो जाता था। ऐसे ही एक बार भोजन पानी की तलाश में दोनों मित्र अपने झुंड़ से बिछड़ कर, घूमते-घूमते भटक कर, एक गांव में पहुंच गये। वहां के अमीर जमींदार ने दोनाें को देखा, तो खाने-पीने का सामान बाहर रख कर दूर बैठ गया। भूख-प्यास से बेहाल हरिया, तुरंत उधर लपका। सुखिया ने उसे रोका कि बिना समझे-बूझे जमींदार का खाना-पीना लेना ठीक नहीं है, लेकिन हरिया अनसुनी कर उधर चला गया। यह देख कर उदास सुखिया वापस जंगल में लौट गया।
बहुत समय बाद सुखिया अपने झुंड़ के साथ घूमते-घूमते फिर उसी गांव के पास पहुंचा, तो उसकी इच्छा अपने मित्र से मिलने की हुर्इ। जमींदार के दरवाजे पर पहुंच कर उसने देखा कि उसका मित्र गले में पट्टा डाले रसिसयों से बंधा है। उसने पूछा कहो मित्र कैसे हो ? कमजोर हो गये हरिया ने नजर उठा कर देखा और अपनी मायूसी छुपाते हुये बोला मैं एकदम ठीक हं, अच्छा खा-पी रहा हूं ,मौज है, अपनी कहो। सुखिया ने देखा कि हरिया की सिथति और आंखे उसकी बातों की गवाही नहीं दे रही थीं। हरिया ने कहा यार और सब तो ठीक है, लेकिन आजादी नहीं है, मालिक जब जैसा चाहे वह करना पड़ता है और अब तो वह खाना-पीना भी रूखा-सूखा देने लगा है। अपने दोस्त को गुलामी की जिंदगी में छोड़ कर आजादी की सांस लेता सुखिया अपने झुंड़ के साथ कुलाचें भरता जंगल में लौट गया। सैकड़ों वर्ष पुरानी यह कथा आज भी प्रेरणास्पद हैं।
आज की स्थति में भारतीय शासक वर्ग 75 प्रतिशत किसानों, भूमिहीन कृषि मजदूरों की जमीनें येन-केन-प्रकारेण हथिया कर, उन्हें नौकरी के नाम पर, कारपोरेट जमीनदारों – पूंजीपतियों की गुलामी में जकड़ देने पर अमादा है। इसके लिये मोदी सरकार तेजी से भूमि अधिग्रहण, भूमि सीमा, खनन और श्रम कानूनों में संशोधन कर रही है। इसी के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और भारतीय खाधान्न निगम (एफसीआर्इ) को भ्रष्टाचार मुक्त कर उसे ज्यादा प्रभावी बनाने के नाम पर, भाजपा सांसद शांता कुमार की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति ने तमाम खामियों के बावजूद, दशकों तक देश की गरीब आबादी का पेट भरने वाली संस्थाओं पीडीएस और एफसीआर्इ को समाप्त करने की सिफारिश की है। उन सिफारिशों को डा. लोहिया के समाजवादी स्कूल के छात्र व जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति की पैदावार और अब मोदी सरकार में केंद्रीय खाध व सार्वजनिक वितरण प्रणाली मंत्री राम विलास पासवान ने उन सिफारिशों को मंजूरी दे दी है। गौरतलब है कि यह वही पासवान हैं, जिन्होंने गुजरात दंगों में मोदी सरकार के कारनामों के चलते अटलबिहारी वाजपेयी सरकार का मंत्री पद छोड़ दिया था। अब दूसरी बार वह भाजपा की नौकरी में आये हैं।
देश की खाधान्न सुरक्षा और कृषि के परंपरागत ढ़ाचे में बुनियादी बदलाव करने जा रही केन्द्र की मोदी सरकार, इसके लिये वह छदम संसदीय प्रणाली में बहस, विचार-विमर्श तथा नागरिक संगठनों से बातचीत करने की औपचारिकता से भी भाग रही है, जिसे कांग्रेस की पिछली संप्रग सरकार दिखावे के तौर पर ही सही, करने का दिखावा करती थी। लोकतंत्र के इस कथित नागरिक अधिकार को भी, भारी बहुमत के अहंकार में बौरायी भाजपा सरकार ने नकार दिया है। संसद में भूमि विधेयक पर चर्चा के दौरान कांग्रेस की मुख्य पीड़ा भी यही प्रकट हो रही थी कि 2013 में उसने कानून बनाने से पहले भाजपा सहित सभी दलों व पक्षों के साथ सहमति बनायी थी, फिर क्यों उसमें बदलाव किया जा रहा है? वह मानो अपने को ठगा महसूस कर रही है कि उस समय कड़ा से कड़ा कानून बनाने की वकालत करने वाली भाजपा, अब सत्ता में आने के बाद कारपोरेट घरानों के हितैषी बन गयी है।
शायद उसकी यह पीड़ा भी है कि वह क्यों नहीं कारपोरेट के हित में कानून बना सकी, जिसकी कीमत उसे आम चुनावों में चुकानी पड़ी। इसके विपरीत मोदी ने चुनावों से पूर्व ही कारपोरेट प्रमुखों को आश्वस्त कर दिया था कि वह उन सारे आर्थिक सुधारों को तेज करेंगें, जो एक दशक में मनमोहन सिंह सरकार नहीं कर सकी थी। इसमें भूमि, खनन, श्रम, खाधान्न व मंड़ी कानूनों में बदलाव के अलावा विदेशी निवेश (एफडीआर्इ) की सीमा बढ़ाने या 100 प्रतिशत करने तथा लंबित योजनाओं को बेरोकटोक वन एवं पर्यावरण की मंजूरी देने जैसे तमाम मुद्वे शामिल थे। इसके एवज में कारपोरेट घरानों ने अपने समूचे तंत्र के साथ कांग्रेस के खिलाफ और नरेंद्र मोदी की छवि बनाने में अपनी ताकत झोंक दी।
दरअसल बात यह है कि जमीन, खनन, श्रम सुधारों, खाधान्न को लेकर हो रहे सारे परिवर्तन एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। कारपोरेट कंपनियों की चाकरी करने का करार करके सत्ता में आयी मोदी सरकार औधोगिक उत्पादन के साथ खेती का भी जिम्मा बड़े औधोगिक घरानों को सौंपने की तैयारी कर रही है। इसके बाद छोटे किसानों व भूमिहीन मजदूरों के सामने छोटे-मोटे काम अथवा मजदूरी ही, रोजगार का साधन रह जायेगा। इसी तरह विकास के नाम पर, खनिज खनन की लूट की छूट कारपोरेट कंपनियों को देने के लिये आदिवासियों को जंगलों और पहाड़ों से खदेड़ा जा रहा है। ताकि देश की 75 से 80 प्रतिशत आबादी को विश्व बाजार में सस्ते मजदूर के तौर पर खड़ा किया जा सके। वैसे यह सिलसिला नया नहीं, बलिक 2 दशक से चल रहा है, जिसको अब और तेज किया जा रहा है। यहां यह समझना प्रासंगिक है कि आर्थिक उदारीकरण के दरवाजे 90 के दशक से खुलते जाने के बावजूद, वैशिवक बाजार की पूंजीवादी ताकतों का भारत के बाजार पर कब्जा नहीं हो सका था। इसकी बड़ी वजह 63 प्रतिशत ग्रामीण आबादी की कृषि पर निर्भरता और बड़ी आबादी की खाधान्न सुरक्षा, किसानों द्वारा की जाने वाली खाधान्नों की बंपर पैदावार पर सुनिशिचत रहना है।
यही कारण है कि लाख कोशिशों के बावजूद विश्व बाजार की ताकतें खेती व घरेलू खाधान्न बाजार में दखल नहीं कर पा रहीं हैं थीं, जबकि तमाम बीज, उर्वरक-केमिकल व खाधान्न खरीद करने वाली दर्जनों देशी-विदेशी कंपनियां 2 दशक से देश के बाजार में सक्रिय हैं। शांता कुमार समिति की औपचारिक मंजूरी प्रधानमंत्री से मिलनी बाकी है, लेकिन उस पर फौरी तौर पर अमल शुरू हो गया है। एक अप्रैल से गेहूं की खरीद शुरू होने वाली है, लेकिन इस बार हरियाणा से कोर्इ खरीद नही होगी। अगले वर्ष से पंजाब से एक भी दाना धान व गेहूं का नहीं खरीदा जायेगा। ऐसे में जब पीडीएस के लिये खाधान्न की सरकारी खरीद ही नहीं होगी, तो फसलों का समर्थन मूल्य भी घोषित नहीं होगा। पीडीएस के तहत बीपीएल और अंत्योदय खाधान्न योजना को आधार कार्ड से जोड़ कर गरीबों को नगद सबिसडी देने की तैयारी है। इस योजना को प्रयोग के तौर पर चंडीगढ़ व पुडुचेरी में शुरू किया जा रहा है। इसके बाद उसे पूरे देश में लागू किया जाना है। सबिसडी की गैस इसी मार्च माह से बंद कर दी गयी है। गैस सबिसडी को आधार कार्ड से जोड़ कर नगद भुगतान शुरू हो गया है।
इस तरह भूमि कानून में संशोधन का मामला एक तरफा नहीं है, बलिक 75 से 80 प्रतिशत आबादी को चौतरफा घेर कर, उसे कारपोरेट घरानों के गुलाम मजदूरों के बाडे में धकेल देने का षड़यंत्र है। इस षड़यंत्र में भाजपा व कांग्रेस ही नहीं, कमोबेश सभी संसदीय पार्टियां शामिल हैं। खासतौर पर वह दल, जो राज्यों में सत्तारूढ़ हैं या कभी सत्ता में रहे हैं। इसका खुलासा संसद में भूमि, बीमा, कोयला, खनन, विधेयकों और आम बजट पर चर्चा के दौरान साफ दिखायी दिया। भूमि अधिग्रहण बिल पर चर्चा के दौरान लोकसभा में कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआर्इ, समाजवादी पार्टी, जनता दल(यू), जद(सेकुलर), बीजू(जद) आदि कथित समाजवादी दलों ने प्रकटत: विरोध किया।
बीजू जनता दल का विरोध सर्वाधिक नाटकीय रहा, जिसने भूमि अधिग्रहण बिल की, जम कर तारीफ की। यहां तक कि जमीन लेने पर किसानों की राय संबंद्वी नियम हटाने की वकालत की। उसका विरोध एक मामूली से संशोधन को लेकर था, जिसकेे गिर जाने पर उसने वाकआऊट कर दिया। वैसे भी संसदीय बहसों में नाखून कटा कर शहीद होनाß ओडिसा में सत्तारूढ़ बीजू(जद) की पुरानी फितरत रही है। वर्षों से कलिंगनगर, पास्को और नियामगिरि में किसानों, मजदूरों व आदिवासियों पर विनाशकारी दमनचक्र चल कर, कारपोरेट कंपनियों का हित साधने में लगी नवीन पटनायक सरकार गरीबों, आदिवासियों की कीमत पर एक दशक से आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी पैरोकार बनी हुर्इ है। हालांकि विधेयक पर चर्चा का जवाब देते समय केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह ने उन विपक्षी दलों की कलर्इ खोल दी, जो राज्यों में सरकार चला रहे हैं। उन्होंने उत्तरप्रदेश की सपा सरकार का नाम लेते हुये बताया कि पुराने भूमि कानून, खासतौर पर किसानों से सहमति लेने संबंद्वी नियम का, कड़ा विरोध मुख्यमंत्रियों की बैठक में किया गया था। इसी तरह कर्इ अन्य राज्यों ने भी मांग किया था कि पुराने कानून के रहते एक इंच भूमि का भी अधिग्रहण नहीं किया जा सकता और उधोग तथा विकास योजनायें ठप पड़ी हैं। इसलिए उसमें संशोधन किया जाना चाहिए। इस खुलासे के बाद विपक्षी दलों ने लोकसभा में हंगामा करना शुरू कर दिया।
लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक भले ही पारित हो गया हो, लेकिन वह राज्यसभा में अटक गया है, क्योंकि मोदी सरकार वहां अल्पमत में है। इसके अलावा बड़ा संकट सरकार को अपने सहयोगी दलों से भी है। शिवसेना, स्वाभिमानी शेतकरी संगठन और एक हद तक अकाली दल भी विरोध में हैं। शेतकरी के इकलौते सांसद राजू शेट्टी ने पुणे में र्फोज्स कंपनी के प्रमुख कल्याणी द्वारा हजारों एकड़ जमीन सेज के नाम पर लेने और फिर सेज न स्थापित करने का मामला चर्चा में उठाया। उन्होंने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व 17 लाख रूपये प्रति एकड़ जमीन किसानों से खरीदी गयी थी। सेज तो बना नहीं, अब सरकार उसी कंपनी से 3 करोड़ रूपये प्रति एकड़ के भाव से एयरपोर्ट बनाने के लिये जमीन खरीद रही है। अब सरकार संसद के अवकाश, 20 अप्रैल के बाद पुन: भूमि विधेयक पर कवायद शुरू करेगी, लेकिन इस एक माह में जमीन पर बहुत कुछ घट जायेगा।
मोदी सरकार अंधाधुंध जिन विधेयकों व अध्यादेशों को ला रही है, अथवा उनमें संशोधन कर रही है। उनका पूरा असर भविष्य में दिखायी देगा, लेकिन पूर्व में आर्थिक सुधारों व सेज के नाम पर सरकारों और औधोगिक घरानों ने लूट का जो, नंगा नाच किया है, उससे किसान, आदिवासी, मजदूर और देश जागरूक हो चुका है। यही कारण है कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के 6 माह के अंदर ही आंदोलनों की बाढ़ सी आ गयी है। क्रांतिकारी वामपंथ के संर्घष तो चल ही रहे थे, सरकारी वामपंथ सीपीएम, सीपीआर्इ आदि दल व उनके किसान, मजदूर संगठन भी सक्रिय हो गये हैं। इसके अलावा कथित समाजवादी विचारधारा वाले क्षेत्रीय दलों, कांग्रेस, और तो और आर.एस.एस. से संबंधित किसान व मजदूर संघ भी संघर्ष के लिए कमर कसने का नाटक कर रहे हैं। इन सबके ऊपर अन्ना हजारे हैं, जिनको देश देख चुका है। एन.जी.ओ. के समर्थन से शुरू हुए मध्यवर्ग के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आंच से जब, गरीब-गुर्बे भी जुड़ने लगे, तो कांग्रेस के तत्कालीन मंत्री व भाजपा के दलाल(स्व. विलासराव देशमुख, भइयू जी महराज) के इशारे पर अन्ना पीछे हट गये। आंदोलन की तलछट से जरूर आप पार्टी खड़ी हो गयी, जो आज दिल्ली की सत्ता पर काबिज है।
इसलिये आज जरूरी है कि किसान, मजदूर, आदिवासी आंदोलन मध्यवर्गीय सवालों को भी जोड़ें और क्रांतिकारी जनता व उसके अगुवा नेतृत्व करें। अन्यथा जे.पी. की संपूर्ण क्रांति और अन्ना के आंदोलन की तरह यह संर्घष भी सत्ता के गलियारों में लोटने लगेगा और बुनियादी सवाल अनुत्तरित रह जायेंगे। इसलिए पंचतंत्र की उक्त कहानी को बदली सिथति में समझना होगा। विश्व बाजार की ताकतों के साथ मिल कर भारतीय शासक वर्ग किसानों की खेती, गरीबों के भोजन, आदिवासियों के जंगल व पहाड़ तथा देश की खनिज एवं प्राकृतिक संपदा पर साम-दाम-दंड-भेद-नीति से कब्जा कर 80 प्रतिशत आबादी को बिना श्रम कानूनों के गुलाम मजदूर बना देने का षड़यंत्र रच रहा है। हालांकि उसके लिए यह सब इतना आसान भी नहीं है, क्याेंकि जुझारू किसान, मजदूर, आदिवासी और जागरूक जनता ने चौतरफा संघर्ष का बिगुल फूंक दिया है। साथ ही यह भी उतना ही सच है कि यह संघर्ष संसदीय राजनीति से परे सड़कों और गांवों में तय होगा।