देश में एक बड़ा किसान आंदोलन करवटें ले रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार की अध्यादेशों के जरिए किसानों की 3 फसलों वाली जरखेज जमीनों की मनमाने ढ़ग से देशी-विदेशी कम्पनियों द्वारा दूसरे दौर की लूट शुरू होने वाली है। संसद में भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन कराने में नाकाम मोदी सरकार ने जल्दबाजी में अध्यादेश का सहारा लिया, जिसे जनतंत्र के नाम पर पूंजीपतियों द्वारा निर्वाचित सरकारें सबसे अंतिम हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती रही हैं।मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में बैठी कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने राज्यसभा में बहुमत के बल पर मोदी सरकार के तथाकथित आर्थिक विकास के एजेंड़े को रोकने की कोशिश की जिसकी परिणति, अध्यादेशों की श्रंखला में हुयी। हालांकि कांग्रेस की संप्रग सरकार अपने 10 वर्षों के कार्यकाल में आर्थिक विकास के नाम पर यही सब कुछ करना चाहती थी, लेकिन वह गठबंधन की कमजोर सरकार होने के कारण कारपोरेट कंपनियों का हित साधने में एक हद तक नाकाम रही। वहीं पूर्ण बहुमत के अहंकार और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की रेडकारपेट पर कदमबोशी की हड़बड़ी में सरकार ने आधा दर्जन अध्यादेशों के जरिए बीमा, बैंकिंग, रेलवे आदि बड़े बुनियादी क्षे़त्रों में देशी-विदेशी कम्पनियों की लूट का रास्ता खोल दिया है।
भूमि अधिग्रहण एवं पुर्नवास मुआवजा कानून में संशोधन के लिये लाये गये अध्यादेश के खिलाफ किसानों में बेचैनी फैल रही है और जुझारू किसान व मजदूर संगठनों ने कमर कसना शुरू कर दिया है। छिटपुट आंदोलनों की शुरूआत भी हो गयी है। हिंदू राष्ट्रवादियों के हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी कोे कारपोरेट घरानों के आश्वासन के बाद ही भाजपा ने आम चुनावों से पूर्व अपना अगुवा घोषित किया था। आश्वासन था कि नयी सरकार अमेरिका परस्त मनमोहनी आर्थिक नीतियों पर बदस्तूर चलती रहेगी और पूर्ववर्ती कांगे्रस सरकार के लंबित व रूके पडे़ फैसलों पर तेजी से अमल करेगी। शपथ लेते ही मोदी ने कांग्रेस की संप्रग सरकार के छोडे़ आर्थिक कार्यक्रमों पर तेजी से अमल करना शुरू कर दिया है।
दरअसल किसानों का आक्रोश अतीत में उधोगों और सेज के नाम पर जमीनों की हुर्इ अंधाधुंध लूट को लेकर है।बाद में उन्हीं जमीनों को रिएलस्टेट मे तब्दील होते और उनकी आसमान छूती कीमतों को देख कर वह अपने को ठगा महसूस कर रहा है। ग्रामीण इलाकों में और किसान की जमीन पर सीलिगं एक्ट है, लेकिन शहरों में और उधोगपति कहीं भी हजारों-हजार एकड़ जमीन रख सकता है। सैकड़ों औधोगिक घरानों के पास हजारों-हजार एकड़ जमीन इस वक्त है। उपेक्षा पूर्ण सरकारी नीतियों के चलते खेती के लगातार अलाभकारी होते जाने से, हकीकत यह है कि किसानों को अब जमीन बेचने को लेकर ज्यादा आपतित या अफसोस नहीं है। बलिक उसकी मांगों के केंद्र में अधिक से अधिक कीमत व पुर्नवास मुआवजा के लिये मोलभाव करने की ताकत अपने पास होने को लेकर है।
हाल के वर्षों में किसान आंदोलनों का केंद्र बिंदु भी लगभग यही रहा है। किसानों के एक दशक के जुझारू आंदोलनों से ना चाहते हुए भी वल्र्डबैंक की ‘गलबबुआ मनमोहन सरकार को विवश हो कर जमीन की कीमत बाजार भाव से तीन गुना ज्यादा कीमत देने, पुर्नवास मुआवजा देने के अलावा किसानों की जमीन अधिग्रहण करने से पूर्व उस पर क्षेत्र के 30 प्रतिशत किसानों की सहमति लेने का आवश्यक प्रावधान करने संबंधी नियम कानून में शामिल करना पड़ा था। कारपोरेट मीडिया के कंधों पर बैठ कर आयी मोदी सरकार ने उस भूमि अधिग्रहण कानून को एक अध्यादेश के जरिए बदल कर किसानों की मोल-भाव की ताकत को भी छीन लिया है।
मोदी सरकार विकास के बड़े-बड़े दावों के साथ आयी है। सबको रोजगार और सबको पक्के मकान का वादा छलावा मात्र है। सौ मेगा सिटी बनाने, दिल्ली-मुम्बर्इ इंडसिट्रयल कारीडोर और सैकड़ों मेगा पावर प्रोजेक्ट की बुनियाद किसानों के लाखों लाख हेक्टेयर उपजाऊ जमीन पर रखने का सपना हिंदू राष्ट्रवादी सरकार ने संजो रखा है।यह वो जमीन होगी, जो छोटे-बड़े शहरों के आसपास की जरखेज है। देश की आजादी के बाद औधोगिक विकास और शहरीकरण के नाम पर किसानों की जमीनें जाती रही हैं, लेकिन सेज के नाम पर हुर्इ लूट ने किसानों की आंखें खोल दीं है। किसानों के पास रहते समय सैकड़ों-हजारों की मामूली कीमत वाली जमीन उसके हांथ से जाते ही बाजार में लाखों-करोड़ों रूपए की हो जाती है। ऐसे में मोदी सरकार द्वारा अध्यादेश के जरिए मोल-भाव की ताकत छीन लेने से किसानों में जर्बदस्त आक्रोश भड़क रहा है। दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भाजपा की शर्मनाक पराजय में दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाताओं की भी बड़ी भूमिका है, जो मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से नाराज थे। यह मतदाता हरियाणा के जाट कृषक भी हैं या दिल्ली में उनकी जमीनें हैं, जो नये कानून से प्रभावित होगें।
बीते एक दशक में किसानों की जमीनों की लूट का बड़ा उदाहरण सेज है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) की विफलता और जमीन हथियाने की कहानी भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (कैग) ने संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में लिखी है। कैग ने खुलासा किया है कि बड़े पैमाने पर रोजगार देने व कर मुक्त निर्यात से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में सेज नकामयाब रहे हैं। यही नहीं अधिकांश सेज खोले ही नहीं गये। कैग ने लेखापरीक्षा में 13 राज्यों आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, और पशिचम बंगााल के अलावा चंडीगढ़ व संघ राज्यों को सैंपल के तौर पर चुना था। इन्हीं राज्यों में सर्वाधिक सेजों को अधिसूचित किया गया था। कांग्रेस की संप्रग सरकार ने सेज अधिनियम 2005 में लागू किया था, लेकिन उसमें गति उसके दूसरे कार्यकाल 2008 से आयी।
देश में 576 सेज प्रस्तावों को मंजुरी दी गयी, जिसके तहत 60 हजार 375 हैक्टेयर जमीन अधिग्रहीत की गयी। इसमें से सिर्फ 152 ही शुरू हो सके। बाकी 424 में काम ही नहीं शुरू हुआ। शुरू हुये सेजों ने 28 हजार 488 हैक्टेयर जमीन का उपयोग किया। बाकी 424 सेजों के पास 31 हजार 886 हैक्टेयर जमीन का कब्जा बना हुआ है। नियम के अनुसार जमीन का 5 वर्ष तक उपयोग न करने वाले सेज मालिकों से 5 वर्ष के बाद जमीन शर्त के अनुसार किसान अथवा सरकार के पास लौट जानी चाहिए, लेकिन हो इसके उलटा रहा है। बंद पड़े सेजों के मालिक भूमि का उपयोग बदलवाने में लगे हैं। काफी को इसकी अनुमति भी मिल चुकी है और अब मोदी सरकार इसके लिए नियम में बदलाव कर, उसे कानूनी जामा पहनाने जा रही है। इसका सर्वाधिक फायदा मोदी के नवरत्नों में से एक गुजरात के अदानी समूह सहित सभी को होगा।
गुजरात में सेज के लिये अधिग्रहीत की गयी 47.45 प्रतिशत भूमि वर्षों से निषिक्रय पड़ी है। इसी तरह 2 से 7 वर्षों से आंध्र प्रदेश में 48.45, कर्नाटक में 56.72, महाराष्ट्र में 70.05, ओडिसा में सर्वाधिक 96.58, तमिलनाडु में 49.02 और पशिचम बंगाल में 96.34 प्रतिशत सेज की जमीन निषिक्रय पड़ी है। यह वो राज्य हैं, जिन्हें सफल सेज वाले राज्य होने का दावा कांगे्रस की संप्रग सरकार करती रही है। इतना ही नहीं 13 राज्यों की 47 कंपनियों ने कैग को जांच के लिये दस्तावेज ही नहीं दिये, जिनमें काण्डला, अडानी पोर्ट, एस्सार, डी एल एफ, महिन्द्रा, इन्फोसिस, रेनबेक्सी, पाशर््वनाथ, विप्रो और एन्फील्ड शामिल हैं। कैग को जांच में सहयोग न करने की शिकायत के बावजूद सरकार ने मामले में कोर्इ दिलचस्पी नही दिखायी।
केंद्र में दूसरी बार सरकार बनाने के बाद मनमोहन सिंह ने खम ठोंकने के अंदाज में ऐलान किया था कि देश में आर्थिक उदारीकरण का दूसरा चरण सफलता पूर्वक शुरू हो चुका है। सेज के अलावा देश भर में आर्इ टी, बिजली और खनन सहित तमाम उधोगों के नाम पर जमीनों की अंधाधुंध लूट शुरू हो गयी। वहीं मनमोहन टीम की तिकड़ी वित्तमंत्री पी चिदम्बरम, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ताल पर गरीब जनता की छाती पर ता.था.थइया करने लगे। अन्य मंत्री संप्रग दल और स्वंय कांग्रेस शामिल बाजा बन गयी। वहीं उत्तर प्रदेश, ओडिसा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु पंजाब तथा स्वंय नरेंद्र मोदी के गुजरात सहित कर्इ राज्यों में किसान आंदोलन भड़क उठे थे, जिसके परिणाम स्वरूप मुंह छिपाने और सिर पर आ पड़े चुनावों के लिए, कांग्रेस को भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करना पड़ा।
मनमोहनी सरकार ने देश को सेज के जरिये बड़े पैमाने पर विकास और रोजगार, विदेशी मुद्रा की कमार्इ के सब्जबाग दिखाये थे। इसके लिये सेज अधिनियम के तहत कंपनियों को 5 वर्ष तक आयकर में छूट दी गयी थी और उत्पादों के निर्यात भी कर मुक्त थे। कैग ने जिन 13 राज्यों का अध्ययन किया, वहां खोले गये सेजों का लक्ष्य था कि निर्यात से 48 हजार 534 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होगी, लेकिन वह केवल 9 हजार 946 करोड़ ही हुयी। इसी तरह सेज बनाते समय दावा किया गया था कि 39 लाख 17 हजार 677 लोगों को रोजगार दिया जायेगा, लेकिन मात्र 2 लाख 84 हजार 785 लोगों को काम मिल सका।
इसके विपरीत सेज की अनुपयोगी भूमि का गैर सेज कामों मसलन आवासीय कालोनियों, माल, अस्पताल तथा अन्य व्यवसायिक कामों में इस्तेमाल शुरू करने के आवेदन मांगे जाने लगे। चूंकि यह मामला राज्य सरकारों के अधीन था, सो भ्रष्ट तरीकों को अपनाकर केन्द्र ने जिस तरह सेजों को अधिसूचित किया था, उसी तरह जमीनों की लूट में बराबर की हिस्सेदार राज्य सरकारों ने भी जमीनों का उपयोग बदलने की अनुमति देने में कोर्इ कोताही नहीं की। अभी भी सैकड़ों प्रस्ताव लंबित हैं, लिहाजा कारपोरेट कंपनियों को मुनाफा कमवाने का वादा करके के केंन्द्र की सत्ता में आयी नरेंद्र मोदी सरकार अब कानून में बदलाव के जरिए, एक झटके में सेज का मामला निपटाने में लग गयी है।
अब यह सारी तस्वीर देश के किसानों के सामने है। वह इसे बाखूबी समझ रहे हैं। यही कारण है कि जब मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण संशोधन के लिये अधिसूचना जारी की, तो सबसे पहले किसान संगठनों की कड़ी प्रतिक्रिया सामने आयी। देश भर में बयानबाजी के अलावा बैठकों, सभाओं और मोदी सरकार तथा अधिसूचना के खिलाफ पुतले जलाये जाने का सिलसिला शुरू हो गया है, जबकि अभी घोषित की जा रही और लंबित योजनाओं के लिये जमीनों के अधिग्रहण का नया दौर शुरू भी नहीं हुआ है। केंद्र में सरकार बनने के साथ ही वन एवं पर्यावरण, उधोग, वाणिज्य, वित्त आदि मंत्रालयों में लंबित व विवादित योजनाओं की फाइलें बिना विचार-विमर्श के ऐसे सरपट दौड़ने लगीं, मानो मोदी मंत्रिमंडल ने शपथ लेने से पहले ही सारे फैसले ले लिये होें। इसको देखते हुये बड़े किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि पूरी तरह तैयार है।
यहां यह गौर करने लायक है कि भाजपा की आम चुनावों में जीत को आर. एस. एस. और उसका हिन्दूवादी परिवार हिंदुत्व की जीत साबित करने में लगा है। यही कारण है कि बीते 8 माह में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पशिचम बंगाल, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में सांप्रदायिक दंगों, चर्चों पर हमले, ‘लव जेहाद, घर वापसी जैसे कार्यक्रमों की संघ परिवार ने बाढ़ सी ला दी है। साफ है कि मोदी सरकार देशी-विदेशी लुटेरे कारपोरेट पूंजीपतियों के हित साधने के लिये किसान, मजदूर और जन विरोधी नीतियां और कानून लागू करेगें, जबकि इस दौरान अंध राष्ट्रवादी संघ परिवार देश का सांप्रदायिक सदभाव तहस-नहस करेगा। ताकि सामाजिक ताना-बाना बिखर जाये। इसके लिये उसके रावण जैसे दसमुखों वाले संगठन सुविधानुसार कहीं ‘लव जेहाद छेड़ेगें तो कहीं धर्मांतरण करेगें। इतने पर भी बात न बनी, तो दंगे व चर्चों पर हमले होगें। देश में सांप्रदायिक सदभाव के प्रतीक, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की प्रतिमा लगा कर उसे महिमा मंडि़त करने के प्रयास को उसी कड़ी के हिस्से के रूप में देखना चाहिये।
किसानों और मजदूरों को किसी भी अांदोलन से पूर्व मोदी एवं संघ परिवार की इस दोगली नीति को बखूबी समझ लेना चाहिए। वैसे दिल्ली चुनावों ने नरेंद्र मोदी के उस प्रभामंड़ल को ध्वस्त कर दिया जो, लोकसभा चुनावों के परिणामों से बना था। हालांकि उसकी शुरूआत महाराष्ट्र और फिर झारखंड़ चुनावों से हो गयी थी, जो दिल्ली में पूरी हो गयी। इन हालातों में जुझारू किसान संगठनों को उठ खड़ा होना चाहिये।